मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

अब डर कैसा

मुझे अब अपनी मां के पास रहते एक साल होने को है । ससुराल वालों ने मेरी कोई खबर नहीं ली । भाभी जिन्होंने अपने भाई के साथ मेरी शादी करवाई, वैसे तो मेरे जीवन में कोई रूचि नहीं लेती और मैं अपने तथाकथित पति के बारे में पूछूँ तो उनका एक ही जवाब मिलता । मैं चुपचाप अपने ससुराल चली जाउं, इसी में मेरी भलाई है ।
पिछ्ले एक साल से मां के आंचल का साया और स्नेह मिला तो बहुत सी ऎसी सच्चाइयों को मैं समझ सकी जो ससुराल में रहते मैं नहीं समझ पाई थी । शादी करते समय तो मेरे मन बस कुछ कच्चे और भोले सपने थे, जिनका जिंदगी की सच्चाई से कभी आमना-सामना ही नहीं हुआ था। बचपन से ही इकलौती, विकलांग, शारीरिक रूप से कमजोर और बिन बाप की औलाद होने के कारण मां अतिरिक्त वात्सल्य, शायद सदा मेरा सुरक्षा कवच बना रहा।
मेरी डोली ससुराल पहुँची तो साथ ही साथ भाभी भी । आखिर उनके सगे भाई की शादी हुई थी और रिश्ता भी उन्होंने ही करवाया । ससुराल में पहली रात मैं उन भाभी के साथ ही सोयी। एक महीना भाभी मायके में रही और मुझ पर अपना स्नेह बरसाते हुए रोज़ मेरे साथ ही सोती थी । उनका यह स्नेह अचानक चिढ़ में बदल जाता जब मैं अपनी माँ से बात करने के लिए कहती । वे कहती अब अपनी माँ को अकेले रहने की आदत डालने दे । माँ का फोन आता तो भी सब मेरे सामने ही बैठ जाते कि पता चले मैं अपनी माँ से क्या बातें कर रही हूँ । संकोचवश मैं सिर्फ हां हूं करती रहती । इसी तरह जब भी मैं सुमित के साथ अकेली होती तो भाभी कहीं न कहीं से टपक पड़ती । मुझे छेड़ने लगती। किसी न किसी बहाने से मुझे या सुमित को अपने साथ ले जाती । मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि भाभी आखिर चाहती क्या हैं । एेसा तो मैने अपनी किसी भी सहेली से न सुना था कि शादी के तुरंत बाद पति अपनी पत्नी के साथ रहनेसोने को इच्छुक ही न हो। दो एक दिन बाद मैने भाभी से डरते और शर्माते हुए पूछा, तो उन्होंने कहा कि सुमित बहुत थक सा जाता है । वह तुम्हारी मां की तरह कोई सरकारी बाबू तो है नहीं कि बैठे बैठे काम करते रहे । और फिर तुम्हारी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी होने के कारण तुममें वैसा तीव्र आकर्षण भी तो नहीं है। तुम्हारे भैया ने तो शादी के बाद महीने दो महीने मुझे एक पल को भी अकेला न छोड़ा था । कोई उन्हें बुलाता तो भी पल दो पल में बहाना बना कर फिर मेरे पास लौट आते । लेकिन तू चिंता न कर मैंने सुमित को सब समझा दिया है । तुझे मेहनत कर ससुराल में सबका दिल जीतना होगा । सब ठीक हो जाएगा । मैं सोचने लगी यह सब भाभी क्या कह रही हैं एेसा कुछ शादी से पहले या रिश्ते से पहले तो इन्होंने नहीं कहा । और मेरी विकलांगता कोई छिपी हुई बात तो थी नहीं , सुमित को पहले ही सब पता था। अब इन बातों का क्या मतलब ।
पति की मात्र दो हजार पगार (जो पहले भाभी ने चार पांच हजार बताई थी ) में अपनी गृहस्थी चलाने का मैने फैसला कर लिया था । भाभी के समझाने पर, मां को बिना बताए ही मैं अपनी डिग्रियों के ओरिजिनल प्रमाण पत्र भी कानपुर ले गई । नौकरी भी शुरू कर दी । 800 में छोटे से स्कूल में घर के पास ही । लेकिन शायद मेरे भाग्य में कुछ और ही लिखा था ।अब मां के घर रहते हुए भी मानसिक तौर पर मैं अपने को स्वस्थ महसूस नहीं कर पा रही हूं । ससुराल से लगातार धमकी भरे फोन आ रहे हैं कि शराफत से लौट आओ नहीं तो अच्छा न होगा । मेरे ही नहीं , मेरे जिन जान पहचान के जो फोन नं। ससुराल वालो के पास हैं , उन सब के घर भी यही फोन आ रहे हैं कि लड़की को किसी तरह समझा कर भेज दिया जाए तो ही अच्छा है ।

अनुरोध --
अनुराधा और सुजाता का धन्यवाद देना चाहँगी कि उनकी बात पढ़कर मैं भी अपनी कहानी के सच को कह पाई । कहानी अभी बहुत लम्बी है, अपनी मानसिक हालत और अन्य कारणों से मैं अपना और अपने शहर का सच्चा नाम नहीं बता सकती, आगे भी बता पाउंगी या नहीं यह मेरे भविष्य पर निर्भर करता है। लेकिन अपनी पूरी कहानी कहकर , अपने भविष्य के बारे में क्या निर्णय लूं ,आपकी राय चाहती हूं । मैं भी आत्मसम्मान के साथ जीवन बसर करना चाहती हूं । मेरी तरह भारतीय समाज की और भी कई पीडि़त बेटियां होंगी, जिन्हें शायद अपनी कहानी कहने का मौका भी नहीं मिला । इसलिए अपनी मित्र के माध्यम से आप तक पहँच रही हूं । यह कहना तो शायद अतिशयोक्ति होगा कि इस समय मेरी हालत भी बम्बई की दहशत में फँसे लोगों की तरह है । लेकिन स्थिति गंभीर है।
क्योंकि
मरना मुश्किल है
लेकिन उससे भी ज्यादा मुश्किल है
पल पल, घंटों तक, कई दिनों तक, महीनों तक
और शायद सालों तक जीवन और मौत के बीत झूलते रहना ।

गुलामी में जीना मुश्किल है
लेकिन उससे भी ज्यादा मुश्किल
पल, घंटों तक, कई दिनों तक, महीनों तक
और शायद सालों तक, आजा़द कहलाते हुए भी निरंतर गुलामी करना।

उन्मुक्त गगन में क्षितिज पाना मुश्किल है
लेकिन उससे भी ज्यादा मुश्किल है
हर पल, घंटों तक, कई दिनों तक, महीनों तक
और शायद सालों तक आनंदमयी उड़ान की सफ़ल योजनाएं बनाना।
आज़ादी की जिम्मेदारी सफलतापूर्वक संभालना ।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

अब डर कैसा

अब जब शुभ काम होना तय हो ही गया है तो सबने कहा कि कोई पंगा न करो । मेरा तो बहुत मन था कि मैं अपने कौशल भैया को भी कानपुर सगाई के लिए बुलाउं । लेकिन सब उनसे पूछे बिना ही कह रहे हैं कि वे अपने कामधंधे में व्यस्त हैं । उन्हें शादी पर बुला लेना । अभी उनकी मां को ही साथ ले चलते हैं । न चाहते हुए भी मैंने कहा चलो ठीक है । सगाई हो ही गई और उसके साथ ही नई समस्या ख़डी हो गई कि शादी कहां होगी । कानपुर शादी करवानी बहुत मंहगी पड़ेगी, इसलिए लड़के वाले चाहते हैं कि सहारनपुर में ही शादी हो जाए, लेकिन फिर सारी जिम्मेदारियां जो लड़केवालों की होती हैं वे भी मां पर ही आ पड़ेंगी । अंतत: मां ने ही सारी जिम्मेदारी ओढ़ ली । हम लड़कीवाले जो ठहरे। और कई तरह की अडचनों को पार करते हुए, शादी भी हो ही गई । खूब खुशियां मनाई गई भाभी को बड़ी वाहवाही मिली कि एक विकलांग लड़की की शादी करवाकर उन्होंने बड़े पुन्य का काम किया है । भाभी बहुत खुश थीं ।
मैं सहारनपुर के स्टेशन पर अपने नए नवेले दुल्हे और सास के साथ खड़ी थी । द्रेन आ गई और मैं मां से अलग होकर अपने नए परिवार के साथ अपने को बैठा हुआ देखती हूँ । मन में एक टीस सी उठती है । हालात का ऐसा जादू कि मैं अपने पर भी उसी का नियंत्रण सा महसूस कर रही थी । मां से जाकर चिपक जाना चाहती थी लेकिन पैर जैसे जम से गए थे । गाड़ी चल पड़ी और मां की डबडबाती आँखें मेरे सीने में कहीं गड़ सी गईं । मैं गुमसुम सी खिड़की के पास बैठ गई और मेरा दुल्हा और सास सामने बैठे कभी कनखियों से मुझे देखते और कभी आपस में कुछ धीमे धीमे बात कर लेते । मैं उदास तो थी लेकिन यह भी चाह रही थी कि किसी से बात करूं या कोई मुझसे ही बात कर ले । लेकिन नई दुल्हन का संकोच कैसे छोडती । पूरा सफर चुप रहकर ही काटना पड़ा । जाने कब आँख लग गई और जागी तो गाड़ी से उतरने की गहमागहमी में मैंने अपने को भी कानपुर स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़े पाया । आटो में अपना सारा साजो सामान रख मैं अपने नए परिवार के साथ अपने नए घर पहुँची । सुबह का मौसम ठंडक भरा था । नमी और ओस की ठंडक भरी हवा से मेरा समूचा शरीर कांपने सा लगा । लेकिन नए रिश्ते की गर्मी ने तन मन दोनों से मौसम की ठंडक के एहसास को गायब सा कर दिया । इस तरह मैं आई थी तुम्हारे घर नई नवेली दुल्हन बन कर ।
इन सब बातों को बीते अभी दो ही साल हुए होंगे लेकिन, मुझे ऐसा लग रहा है मानो अरसा बीत गया । मुझे तो ऐसा लग रहा है ये मानो मेरा तीसरा जन्म है । पहला जन्म शादी से पहले, दूसरा शादी के बाद और तीसरा अब जब जिंदगी फिर एक बार रिश्तों को नए सिरे से समझने को मज़बूर है। मैने तो हर संभव कोशिश की । मां से छुप छुप कर बहुत से समझौते किए । लेकिन अपनी जिंदगी खोकर तो मैं यह रिश्ता नहीं निभा सकती थी । साल भर ससुराल में रहने और हर तरह से वहां की जिंदगी में ढलने की कोशिश करते करते मुझे पता ही नहीं चला कि कब बीमारी ने मुझे जकड़ लिया । मां ने जब सुना कि लगातार पंद्रह बीस दिन में बुखार चढ़ने की बात सुनी तो डाक्टर के पास ले गयी । पूरी जांच हुई ।खतरनाक हद तक ब्रोंकाइटिस और वजन मात्र २६ किलो डाक्टर भी देखकर हैरान कि आप जी कैसे रही हैं । मां ने ता ठान लिया कि अब चाहे कुछ हो जाए । मैं अपनी बेटी को दोबारा मरने के लिए ससुराल नहीं भेजने वाली । उन्हें अपनी उस भांजी की याद हो आई जो गर्भावस्था में अपनी मां, अपने भाई और पिता से सहायता मांग थक गई लेकिन सबने उसे ससुराल वालों की जिम्मेदारी समझ उसके हाल पर ही छोड़ दिया ।

बुधवार, 19 नवंबर 2008

अब डर कैसा

मां इस बात से बहुत दुखी रहती हैं कि मैंने बचपनसे ही कभी ठीकठाक जीवन को न देखा न समझा । वो चाहती हैं कम से कम अब तो मैं जीवन को सामान्य सहज रूप में जी सकूं , जब एक मौका मिला है तो उसे छोड़ा क्यों जाए । क्या पता भगवान ने ही कुछ बेहतर जिंदगी मेरे लिए सोची हो, जीवन का नया रूप मुझे दिखाना हो । मां जब ससुराल से बचती बचाती मामा के घर पहुंची तो नानी के घर भी मेरे साथ मामा मामी या नानी के बर्ताव से मां खुश नहीं थी। मां भी इन सब बातों से कभी खीझती, कभी मुझे ही पीटने लगती, तो कभी ज्यादा ही दुलार बरसाने लगती । मैने भी जिंदगी से कभी ज्यादा उम्मीद ही नहीं की । सदा यही सोचा कि जिंदगी ऐसी ही होती है । लेकिन यह तो हमेशा लगता रहा कि मैं बाकियों से कुछ अलग हूं । मुझे बहुत कुछ नहीं करना चाहिए । पापा या डैडी के नाम पर मेरे पास बताने के लिए कुछ नहीं है । पर अब मम्मी कहती हैं कि सब कुछ ठीक हो जाएगा । इतनी मेहनत और जद्दोज़हद से मां ने अपनी शादी से पहले वाली सरकारी नौकरी पुन: हासिल की, छोटा सा ही, लेकिन अपना घर बना ही लिया, जहां मुझे और मां को कोई फालतू की बातें या ताने नहीं सुना सकता और पिछले सात आठ साल से हम दोनों मां बेटी सुकूल की जिंदगी जी रहे हैं । हालांकि मम्मी की बडी बहन और उनके बेटों ने हर दुख तकलीफ में हमें सहारा दिया । लेकिन अब हम अपने सहारे भरा पूरा जीवन जी ही रहें हैं । दीनहीन समझ कर तो कोई मेरा रिश्ता नहीं ही लाया होगा ।भाभी भी तो मुझे काफी प्यार करती हैं । जब से वो ब्याह कर कानपुर से सहारनपुर आईं हैं मैं ही तो उन्हें सब जगह ले जाती हूं । और किसी से वो कह भी नहीं पाती और भैया के पास ज्यादा समय होता नहीं । सहारनपुर के सारे बा़जा़र मैंने ही उन्हें दिखाये । एन.टी.टी भी हम दोनों ने साथ साथ ही की । भाभी से ज्यादा तो वो मेरी सहेली जैसी ही हैं । उन्होंने जरूर मेरे लिए अच्छा ही सोचा होगा। तो मां भाभी को मना नहीं कर पाई । सगाई की तारीख तय हो गई, सितम्बर में और शादी दिसम्बर में होगी ।सगाई में मेरे मुंहबोले भाई को बुलाने के लिए भाभी मना कर रही है । समझ नहीं आ रहा क्यों ?

सोमवार, 17 नवंबर 2008

अब डर कैसा

बहुत लोग मना कर रहे हैं, कि ये शादी निभ नहीं पाएगी । अकेले ही मैं अच्छा जीवन जी पाउंगी ! घर गृहस्थी संभालना मेरे बस की बात नहीं । लेकिन मुझे लगता है कि कुछ तो एसी सलाह इसलिए दे रहे हैं कि मुझसे जलते हैं, कुछ शायद सचमुच भी मेरे लिए चिंतित हैं। कुछ एसे भी हैं जो मां के कारण मुझे भी शादी करने से मना कर रहे हैं । मां भी शादी के बाद गृहस्थी का और पति का सुख नहीं देख पाई बस संतान सुख या कहो दुख मुझ विकलांग बच्ची के रूप में उन्होंने पाया । बड़ी मुशि्कल से जान बचाकर वह ससुराल से वापस सहारनपुर आ सकी । मैं जब गर्भ में थी तो उनके ससुर ने उन्हें इतना मारा कि उसका फल विकलांगता के रूप में मैं जीवन भर भोग रही हूं । मम्मी की भी रूह कांप जाती है जब कोई उन्हें वही सब याद दिलाकर मेरी शादी न करने की सलाह देता है ।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

अब डर कैसा (कथांश)

मैं आई तुम्हारे घर, नई नवेली दुल्हन बनकर । कितने सारे सपने लेकर ! मैं विकलांग थी, शरीर से । सोचा भी नहीं था कि कभी शादी होगी । लेकिन मेरा स्वस्थ मन कहता रहता था, मेरी भी शादी होगी, मेरे भी सपनों का राजकुमार आएगा । और एक दिन यह सच भी हो गया, मेरे लिए भी न_नुकर करते करते एक रिश्ता आ ही गया । पहले भी कई लोग रिश्ते लेकर तो आए थे, लेकिन उनका मकसद रिश्ता जोड़ने से ज्यादा सहानुभूति दिखाना ही अधिक होता था और यह मां को बातों बातों में समझ आ ही जाता था । लेकिन इस बार बात कुछ अलग थी, रिश्ता बहुत ही नज़दीक की भाभी लाई थी, वो भी अपने भाई का । मां भी हैरान थीं । लेकिन बात टाल न सकीं । उनके मन में भी आशा की किरण जाग ही उठी । मैं भी अपनी बेटी को डोली बिठाउंगी, वह भी और लड़कियों की तरह ससुराल जाएगी । चलो मेरे जाने के बाद उसका ख्याल रखने वाला उसका अपना पति होगा । उसका भी अपना भरापूरा संसार होगा । वह भी मां बनेगी और भी जाने क्या क्या ।.......
मैं भी भरपूर सोचने लगी । सपने बुनने लगी । भाभी यूं ही हवा में बात तो नहीं कर सकती , कुछ तो जरूर सोचा ही होगा तभी तो ये बात मां से सीधे सीधे कही है । पहले भी उनके भाई का एक बार उनके भाई का रिश्ता सुना था हो गया था, फिर पता नहीं चल पाया था कि कैसे वह टूट गया । इन्होंने तोड़ा या लड़की वालों की तरफ से तोड़ा गया । लेकिन उस बात को भी साल भर तो हो ही गया है, बहुत ढूंढ रहे थे कोई लड़की मिल ही नहीं रही । देखने में तो इनका भई सुमित सुन्दर नहीं तो ठीक ही है । उससे भी बुरी शक्ल वाले लड़कों की शादियां होते देखी हैं पर उसे पता नहीं लड़की क्यों नहीं मिली ? मुझसे एकाध बार भाभी के घर पर ही मिला भी, सब ठीक ही लगता है, हां बस कमाई कम है , लेकिन क्या कम कमाने वालों की शादी नहीं होती, अभी हमारे यहां तो एसी नौबत नहीं । शादी भी खूब हो जाती है और रिश्तेदार आगे गृहस्थी को भी लेदेकर चलवा ही देते हैं अपने ही मोहल्ले में कितने घर हैं जहां आदमी ज्यादा कमाते हो । ज्यादा तो औरतें ही कुछ न कुछ कर पति की इज्जत बचाने और गृहस्थी के खर्चे पूरे करने में जी तोड़ लगी रहती हैं । मैं भी कर ही लूंगी किसी तरह गुजारा । मां ने तो वैसे भी मुझे सब कुछ सिखाया ही है । सिलाई मुझे आती है, ब्यूटिशियन का काम मुझे आता है, खाना भी मैं अच्छा बना ही लेती हूं, प्राइमरी टीचर का कोर्स और नौकरी भी मैंने की ही हुई है । बस कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा । बस बात बन जाए ।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

उड्ती चिडिया ( उपन्यास अंशं)


जीवन का अधिकांश संघर्ष एक आदर्श भारतीय गृहस्थी में केवल नारी के ही कंधों पर क्यों आ पड़ता है, इस प्रश्न का उत्तर शायद हम सब देना नहीं चाहते । परम्परा आैर समाज के उदाहरण प्रचुर मात्रा में हम सब के आगे बिखरे पडे हैं जिन्हें उत्तर रूप में मेरी मां ने मेरे सामने आैर मैं भी कई बार जल्दबाज़ी आैर कई बार अपनी बच्ची की अबोधता पर तरस कर उसके सामने रख देती हूं। पांच छह साल की बच्ची जब आपसे पूछे कि मां आप ही पापा के घर क्यों आईं, शादी के बाद पापा आपके घर में रहने क्यों नहीं आए । दादा दादी तो हमारे साथ रहते हैं पर नाना नानी क्यों नहीं रहते । तो परम्परा और रीति रिवाजों का हवाला देने के अलावा आपके पास कोई उत्तर नहीं । बच्चा तो एक बार प्रश्न पूछ थोडी देर बाद दूसरी दुनिया या दूसरे प्रश्नों में उलझ गया, लेकिन मेरा मन उत्तर को व्याकुलता से तलाशता है, वैसे तो बहुत सारे उत्तर हैं कि आज कल तो लड़के भी मां बाप के पास नहीं रहते, नौकरी के चक्कर में बडे़ शहरों या विदेशों का रूख कर लेते हैं या
जीवन का अधिकांश संघर्ष एक आदर्श भारतीय गृहस्थी में केवल नारी के ही कंधों पर क्यों आ पड़ता है, इस प्रश्न का उत्तर शायद हम सब देना नहीं चाहते । परम्परा और समाज के उदाहरण प्रचुर मात्रा में हम सब के आगे बिखरे पडे हैं जिन्हें उत्तर रूप में मेरी मां ने मेरे सामने और मैं भी कई बार जल्दबाज़ी आैर कई बार अपनी बच्ची की अबोधता पर तरस कर उसके सामने रख देती हूं। पांच छह साल की बच्ची जब आपसे पूछे कि मां आप ही पापा के घर क्यों आईं, शादी के बाद पापा आपके घर में रहने क्यों नहीं आए । दादा दादी तो हमारे साथ रहते हैं पर नाना नानी क्यों नहीं रहते । तो परम्परा और रीति रिवाजों का हवाला देने के अलावा आपके पास कोई उत्तर नहीं । बच्चा तो एक बार प्रश्न पूछ थोडी देर बाद दूसरी दुनिया या दूसरे प्रश्नों में उलझ गया, लेकिन मेरा मन उत्तर को व्याकुलता से तलाशता है, वैसे तो बहुत सारे उत्तर हैं कि आज कल तो लड़के भी मां बाप के पास नहीं रहते, नौकरी के चक्कर में बडे़ शहरों या विदेशों का रूख कर लेते हैं या और कुछ लेकिन संतोषजनक उत्तर या समाधान सचमुच समझ नहीं आता । बुद्धि बहुत से संतोषजनक उत्तर देती है कि समाज की व्यवस्था चलाने के लिए, परिवार को संग
कुछ लेकिन संतोषजनक उत्तर या समाधान सचमुच समझ नहीं आता । बुद्धि बहुत से संतोषजनक उत्तर देती है कि समाज की व्यवस्था चलाने के लिए, परिवार को संगठित करने के लिए आदि आदि । लेकिन मन संतुष्ट नहीं होता !

ओह ! अभी इतना काम करना है, मैं भी जाने क्यों रोज रोज, जाने क्या क्य़ा सोचने लगती हूं ?